मां दुर्गा के नौ रूपों की कथा | Maa Durga 9 Rupon Ki Katha

मां दुर्गा के नौ रूपों की कथा |  Maa Durga Nau Rupon Ki Katha

मां दुर्गा के नौ रूपों की कथा

नवरात्री के 1 दिन की  कथा |  Navratri Ke Pehle Din Ki Katha

 

1. शैलपुत्री: इसका अर्थ है पहाड़ों की पुत्री। मां दुर्गा को सर्वप्रथम शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है।
पर्वतराज हिमालय के घर देवी ने पुत्री के रूप में जन्म लिया और इसी कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। प्रकृति का प्रतीक मां शैलपुत्री जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता का सर्वोच्च शिखर प्रदान करती हैं। शैलपुत्री के दाएं हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का फूल रहता है तथा इनका वाहन वृषभ (बैल) है। मां के इस रूप को लाल और सफेद रंग की वस्तुएं पसंद होने के कारण इस दिन लाल और सफेद पुष्प एवं सिंदूर अर्पित करें और दूध की मिठाई का भोग लगाएं। मां शैलपुत्री का पूजन घर के सभी सदस्य के रोगों को दूर करता है एवं घर से दरिद्रता को मिटा संपन्नता को लाता है।
शैलपुत्री माँ की कथा:

एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बड़ा यज्ञ करवाया। उसमे उन्होंने सारे देवताओ को यज्ञ में अपना-अपना भाग लेने के लिए निमंत्रित किया। परंतु शिवजी को उन्होंने निमंत्रित नहीं किया। जब नारद जी ने माता सती को ये यज्ञ की बात बताई, तब माँ सती का मन वहा जाने के लिए बेचैन हो गया। उन्होंने शिवजी को यह बात बताई तब शिवजी ने कहा – प्रजापति दक्ष किसी बात से हमसे नाराज़ हो गए हे, इसीलिए उन्होंने हमें जान बुजकर नहीं बुलाया, तो ऐसे में तुम्हारा वहा जाना ठीक नहीं है। यह सुनकर माँ सती का मन शांत नहीं हुआ। उनका प्रबल आग्रह देखकर शिवजी ने उन्हें वहा जाने की अनुमति दे दी। जब माँ सती वहा पहुंची तो उन्होंने देखा की कोई भी वहा पर उनसे ठीक से या प्रेम से व्यव्हार नहीं कर रहा था। केवल उनकी माता ही उनसे प्रेमपूर्वक बात कर रही थी। तब क्रोध में आकर माता सती ने उस यज्ञ की अग्नि से अपना पूरा शरीर भष्म कर दिया और फिर अगले जन्म में पर्वत राज हिमालय के पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री के नाम से जानी गई।
।। पूजन मंत्र ।।
वन्दे वांछितलाभाय, चंद्रार्धकृतशेखराम।
वृषारूढ़ां शूलधरां, शैलपुत्रीं यशस्विनीम।।

 2.नवरात्री के 2 दिन की  कथा |  Navratri Ke Dusre Din Ki Katha

ब्रह्मचारिणी:- ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली | इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली | ब्रह्मचारिणी माता दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल रहता है | नवरात्र पर्व के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है व साधक इस दिन अपने मन को माँ के चरणों में लगाते हैं |

माँ दुर्गाजी का यह दूसरा स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनन्तफल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता | ऐसी परम्परा है की इस दिन ऐसी कन्याओं का पूजन किया जाता है जिनका विवाह तय हो गया है लेकिन अभी शादी नहीं हुई है | ऐसी कन्याओं का पूजन के पश्चात भोजन कराकर वस्त्र, पात्र आदि भेंट कर माँ ब्रह्मचारिणी को प्रसन्न किया जाता है |
ब्रह्मचारिणी माँ की कथा:

जब शैलपुत्री बड़ी हुई तब नारदजी ने उन्हें बताया की अगर वह तपस्या के मार्ग पर चलेगी, तो उन्हें उनके पूर्व जन्म के पति शिवजी ही वर के रूप में प्राप्त होंगे। शिवजी ही वर के रूप में प्राप्त करने के लिए उन्होंने कठोर तपस्या की तब उन्हें ब्रह्मचारिणी नाम दिया गया। उन्होंने कई वर्ष केवल फल, फूल ही खाये, जमीन पर सोई, यहाँ तक की कई वर्षो तक कठिन उपवास रखे और खुले आसमान के नीचे शर्दी गरमी और घोर कष्ट सहे। यह देखकर सारे देवता प्रसन्न हो गए और उन्होंने पार्वती जी को बोला की इतनी कठोर तपस्या केवल वही कर सकती हे, इसीलिए उनको भगवान् शिवजी ही पति के रूप में प्राप्त होंगे, तो अब वह घर जाये और तपस्या छोड़ दे। माता की मनोकामना पूर्ण हुई और भगवान शिव ने उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया।
।। पूजन मंत्र ।।
दधाना करपाद्माभ्याम, अक्षमालाकमण्डलु।
देवी प्रसीदतु मयि, ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।

3.नवरात्री के 3 दिन की  कथा |  Navratri Ke 3 Teesre Din  Ki Katha

चंद्रघंटा:– का अर्थ है चाँद की तरह चमकने वाली। नवरात्रि के तीसरे दिन मां चंद्रघंटा का पूजन किया जाता है जिनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र होता है। चंद्रघंटा मां के दस हाथ हैं जिनमें कमल का फूल, कमंडल, त्रिशूल, गदा, तलवार, धनुष और बाण है। एक हाथ आशीर्वाद तो दूसरा अभय मुद्रा में रहता है, शेष बचा एक हाथ वे अपने हृदय पर रखती हैं। माता का यह प्रतीक रत्न जड़ित आभूषणों से सुशोभित है और गले में सफेद फूलों की माला शोभित है। इन देवी का वाहन बाघ है। माता का घण्टा असुरों को भय प्रदान करने वाला होता है और वहीं इससे भक्तों को सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। माता का यह स्वरुप हमारे मन को नियंत्रित रखता है।
माँ चंद्रघंटा की कथा:

देवताओं और असुरों के बीच लंबे समय तक युद्ध चला। महिषासुर असुरों का राजा था और इंद्र देवाताओं के। महिषासुर ने देवाताओं पर विजय प्राप्‍त कर इंद्र का सिंहासन हासिल कर लिया और स्‍वर्गलोक पर राज करने लगा। इससे सभी देवतागण परेशान हो गए और इस समस्‍या से निकलने का उपाय जानने के लिए त्र‍िदेव ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश के पास गए। देवताओं ने बताया कि महिषासुर ने इंद्र और अन्‍य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए हैं और उन्‍हें बंधक बनाकर स्‍वयं स्‍वर्गलोक का राजा बन गया है। देवाताओं ने बताया कि महिषासुर के अत्‍याचार के कारण अब देवता पृथ्‍वी पर विचरण कर रहे हैं और स्‍वर्ग में उनके लिए स्‍थान नहीं है। यह सुनकर ब्रह्मा, विष्‍णु और भगवान शंकर को अत्‍यधिक क्रोध आया। क्रोध के कारण तीनों के मुख से ऊर्जा उत्‍पन्‍न हुई। देवगणों के शरीर से निकली ऊर्जा भी उस ऊर्जा से जाकर मिल गई। यह दसों दिशाओं में व्‍याप्‍त होने लगी। तभी वहां एक देवी का अवतरण हुआ। भगवान शंकर ने देवी को त्र‍िशूल और भगवान विष्‍णु ने चक्र प्रदान किया। इसी प्रकार अन्‍य देवी देवताओं ने भी माता के हाथों में अस्‍त्र शस्‍त्र सजा दिए। इंद्र ने भी अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतरकर एक घंटा दिया। सूर्य ने अपना तेज और तलवार दिया और सवारी के लिए शेर दिया। देवी अब महिषासुर से युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार थीं। उनका विशालकाय रूप देखकर महिषासुर यह समझ गया कि अब उसका काल आ गया है। महिषासुर ने अपनी सेना को देवी पर हमला करने को कहा। अन्‍य देत्‍य और दानवों के दल भी युद्ध में कूद पड़े। देवी ने एक ही झटके में ही दानवों का संहार कर दिया। इस युद्ध में महिषासुर तो मारा ही गया, साथ में अन्‍य बड़े दानवों और राक्षसों का संहार कर दिया। इस तरह मां ने सभी देवताओं को असुरों से अभयदान दिलाया।

मां चंद्रघंटा शुक्र गृह की देवी मानी जाती हैं। नवरात्रि के तीसरे दिन चंद्रघंटा मां की पूजा अर्चना करते वाले जातकों की जन्मपत्री में शुक्र दोष समाप्त होता है।
।। पूजन मंत्र ।।
पिंडजप्रवरारूढ़ा, चंडकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्मं, चंद्रघंटेति विश्रुता।।

 है। इनके सात हाथो में कमण्डल, धनुष, बाण, फल, पुष्प, अमृत, कलश, चक्र, गदा है। आठ में हाथ में सभी सिद्धि को देने वाली जप की माला है।
 

4.नवरात्री के 4 दिन की  कथा |  Navratri Ke 4 Din Ki Katha

कूष्माण्डा माता का वाहन सिंह है। कूष्मांडा मां सूर्य से सम्बंधित दोषों को ठीक करती हैं। जिन जातकों की कुंडली में सूर्य नीच का हो उन्हें मां  कूष्मांडा की पूजा से लाभ होता है।
 

मां कूष्मांडा की कथा:

पौराणिक कथा के अनुसार जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत्‌ हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है। इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है। अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। ये देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है। विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। ये देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख-समृद्धि और उन्नति प्रदान करती हैं। अंततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए। नवरात्रि के चौथे दिन मां कूष्मांडा की पूजा अर्चना की जाती है।
।। पूजन मंत्र ।।
सुरासंपूर्णकलशं, रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां, कूष्मांडा शुभदास्तु मे।

 

 
5. नवरात्री के 5 दिन की  कथा |  Navratri Ke 5 Panchve  Din Ki Katha

मां स्कंदमाता – नाम दो शब्दों से मिलकर बनता है। स्कंद और माता। स्कंद भगवान कार्तिकेय का दूसरा नाम है। कार्तिकेय भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र है। इसीलिए स्कंद माता का अर्थ हे, कार्तिकेय की माता। इनके विग्रह में भगवान स्कंद कुमार कार्तिकेय बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं। ये दाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बाईं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है। यह बुध ग्रह की देवी हैं। जो जातक स्कंदमाता की पूजा अर्चना करते हैं उनकी कुंडली में बुध ग्रह की स्थिति मजबूत होती है।
 

मां स्कंदमाता की कथा:

कुमार कार्तिकेय की रक्षा के लिए जब माता पार्वती क्रोधित होकर आदिशक्ति रूप में प्रगट हुईं तो इंद्र भय से कांपने लगे। इंद्र अपने प्राण बचाने के लिए देवी से क्षमा याचना करने लगे। कुमार कार्तिकेय का एक नाम स्कंद भी है इसलिए माता को मनाने के लिए इंद्र देवताओं सहित स्कंदमाता नाम से देवी की स्तुति करने लगे और उनका इसी रूप में पूजन किया। इस समय से ही देवी अपने पांचवें स्वरूप में स्कंदमाता रूप से जानी गईं और नवरात्र के पांचवें दिन इनकी पूजा का विधान तय हो गया। शास्त्रों में इसका काफी महत्व बताया गया है। इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है। अतः मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है। उनकी पूजा से मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है। यह देवी विद्वानों और सेवकों को पैदा करने वाली शक्ति है। यानी चेतना का निर्माण करने वालीं। कहते हैं कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य और मेघदूत रचनाएं स्कंदमाता की कृपा से ही संभव हुईं।
।। पूजन मंत्र ।।
सिंहासनगता नित्यं, पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी, स्कंदमाता यशस्विनी।

 

6.नवरात्री के 6 दिन की  कथा |  Navratri Ke ChatheDin Ki Katha

 

मां कात्यायनी

माता दुर्गा का छठा रूप है मां कात्यायनी का। कात्य गोत्र के महर्षि कात्यायन के यहां पुत्री रूप में जन्म लेने से इनका नाम कात्यायनी पड़ा। दिव्यता की अति गुप्त रहस्य एवं शुद्धता का प्रतीक यह देवी मनुष्य के आंतरिक सूक्ष्म जगत से नकारात्मकता का नाश कर सकारात्मकता प्रदान करती हैं। चार भुजाओं वाली देवी के इस रूप का वर्ण सुनहरा और चमकीला है। रत्न आभूषण से अलंकृत देवी कात्यायनी का वाहन खूंखार सिंह है जिसकी मुद्रा तुरंत झपट पड़ने वाली होती है। ऊपर वाली दाई भुजा से माता की ऊपर वाली भुजा अभय मुद्रा में होती है तथा नीचे वाली वर मुद्रा में होती है। बाई तरफ की उपरी भुजा से उन्होंने चंद्रहास तलवार धारण की है तो नीचे वाले हाथ में कमल का पुष्प पकड़े रहती है। एकाग्रता से माता की पूजा करने वाले को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। माता की उपासना कर शहद का भोग लगाएं जिससे जीवन में खुशहाली यौवन और संपन्नता बनी रहती है।
मां कात्यायनी बृहस्पति ग्रह की स्वामिनी मानी गई हैं। कात्यायनी देवी की पूजा करने से ब्रहस्पति ग्रह से सम्बंधित दोष समाप्त होते हैं।
 

मां कात्यायनी की कथा:

कात्य गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं। इनका गुण शोधकार्य है। इसीलिए इस वैज्ञानिक युग में कात्यायनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे जो जाते हैं। ये वैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर पूजी गईं। मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। यह पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की गई थी। इसीलिए ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। मां कात्यायनी शत्रुहंता है इसलिए इनकी पूजा करने से शत्रु पराजित होते हैं और जीवन सुखमय बनता है। जबकि मां कात्यायनी की पूजा करने से कुंवारी कन्याओं का विवाह होता है। नवरात्रि के छठे दिन भक्त का मन आग्नेय चक्र पर केन्द्रित होना चाहिए। अगर भक्त खुद को पूरी तरह से मां कात्यायनी को समर्पित कर दें, तो मां कात्यायनी उसे अपना असीम आशीर्वाद प्रदान करती है।
।। पूजन मंत्र ।।
चंद्रहासोज्जवलकरा, शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्यात्, देवी दानवघातिनी।।




7.
नवरात्री के 7 दिन की  कथा |  Navratri Ke Satve Din Ki Katha

कालरात्रि – काल अर्थ मृत्यु होता हे,और रात्रि का अर्थ अंधकार होता है। इसका प्रकार कालरात्रि का अर्थ हुआ काल का नाश करने वाली। भय से मुक्ति प्रदान करने वाली देवी कालरात्रि की पूजा हम नवरात्रि के सातवें दिन करते हैं। इनकी पूजा से प्रतिकूल ग्रहों द्वारा उत्पन्न दुष्प्रभाव और बाधाएं भी नष्ट हो जाती हैं। माता का यह रूप उग्र एवं भयावह है लेकिन अपने भयावह रूप के बाद भी यह भक्तों को शुभ फल प्रदान करती हैं। ये देवी काल पर भी विजय प्राप्त करने वाली हैं। मां कालरात्रि का वर्ण घोर अंधकार की भांति काला है, बाल बिखरे हुए हैं तथा अत्यंत तेजस्वी तीन नेत्र हैं। इनके गले में बिजली की चमक जैसी माला भी होती है। मां के चार हाथों में से दो हाथ अभय मुद्रा और वर मुद्रा में होते हैं तथा शेष दोनों हाथों में चंद्रहास खडग अथवा हंसिया एवं नीचे की ओर वज्र (कांटेदार कटार) होती है। माता के तन का ऊपरी भाग लाल रक्तिम वस्त्र से एवं नीचे का भाग बाघ के चमड़े से ढका रहता है। इनका वाहन गर्दभ (गधा) होता है।
नवरात्रि के सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा अर्चना की जाती है, मां कालरात्रि की पूजा करने से शनि दोष समाप्त होता है।
 

मां कालरात्रि की कथा

कथा के अनुसार दैत्य शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था। इससे चिंतित होकर सभी देवतागण शिव जी के पास गए। शिव जी ने देवी पार्वती से राक्षसों का वध कर अपने भक्तों की रक्षा करने को कहा। शिव जी की बात मानकर पार्वती जी ने दुर्गा का रूप धारण किया और शुंभ-निशुंभ का वध कर दिया। परंतु जैसे ही दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा उसके शरीर से निकले रक्त से लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो गए। इसे देख दुर्गा जी ने अपने तेज से कालरात्रि को उत्पन्न किया। इसके बाद जब दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा तो उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को कालरात्रि ने अपने मुख में भर लिया और सबका गला काटते हुए रक्तबीज का वध कर दिया।इनका रूप भले ही भयंकर हो लेकिन ये सदैव शुभ फल देने वाली मां हैं। इसीलिए ये शुभंकरी कहलाईं अर्थात् इनसे भक्तों को किसी भी प्रकार से भयभीत या आतंकित होने की कतई आवश्यकता नहीं। उनके साक्षात्कार से भक्त पुण्य का भागी बनता है। कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। इसलिए दानव, दैत्य, राक्षस और भूत-प्रेत उनके स्मरण से ही भाग जाते हैं। अंधकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं कालरात्रि। काल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है। ये ग्रह बाधाओं को भी दूर करती हैं और अग्नि, जल, जंतु, शत्रु और रात्रि भय दूर हो जाते हैं। इनकी कृपा से भक्त हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है।
।। पूजन मंत्र ।।
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता। लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा। वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥

 

 8. नवरात्री के 8 दिन की  कथा |  Navratri Ke Athve Din Ki Katha

महागौरी

नवरात्रि में आठवें दिन महागौरी शक्ति की पूजा की जाती है। नाम से प्रकट है कि इनका रूप पूर्णतः गौर वर्ण है। इनकी उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। अमोघ फलदायिनी हैं मां महागौरी। अष्टवर्षा भवेद् गौरी यानी इनकी आयु आठ साल की मानी गई है। इनके सभी आभूषण और वस्त्र सफेद हैं। इसीलिए उन्हें श्वेताम्बरधरा कहा गया है। 4 भुजाएं हैं और वाहन वृषभ है इसीलिए वृषारूढ़ा भी कहा गया है इनको। इनके ऊपर वाला दाहिना हाथ अभय मुद्रा है तथा नीचे वाला हाथ त्रिशूल धारण किया हुआ है। ऊपर वाले बाँये हाथ में डमरू धारण कर रखा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है।
जो जातक नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा अर्चना करते हैं उनकी जन्मपत्री का राहू दोष समाप्त हो जाता है।

मां महागौरी की कथा

इनकी पूरी मुद्रा बहुत शांत है। पति रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए महागौरी ने कठोर तपस्या की थी। इसी वजह से इनका शरीर काला पड़ गया लेकिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कांतिमय बना दिया। उनका रूप गौर वर्ण का हो गया। इसीलिए ये महागौरी कहलाईं। ये अमोघ फलदायिनी हैं और इनकी पूजा से भक्तों के तमाम कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा करने का प्रचलन है। मां महागौरी राहू की स्वामिनी मानी जाती हैं. जो जातक नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा अर्चना करते हैं उनकी जन्मपत्री का राहू दोष समाप्त हो जाता है।
।। पूजन मंत्र ।।
श्र्वेते वृषे समारूढा, श्र्वेतांबरधरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यात्, महादेवप्रमोददाद।।

 
9.
नवरात्री के 9 दिन की  कथा |  Navratri Ke Navve Din Ki Katha

सिद्धिदात्री – इसका अर्थ है सर्व सिद्धि देने वाली। माँ दुर्गाजी की नौवीं शक्ति को सिद्धिदात्री माता के रूप में पूजा जाता है। नवरात्रि के अंतिम दिन देवी सिद्धिदात्री की पूजा होती है। ये देवी सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं। पुराणों में यहाँ तक बताया गया है कि भगवान शिव को भी अपनी सिद्धियां इन देवी की पूजा से ही प्राप्त हुई थीं। सिद्धिदात्री माता के कारण ही अर्धनारीश्वर का जन्म हुआ। इनका वाहन सिंह है। चतुर्भुज देवी के दाएं और के ऊपर वाले हाथ में गदा और नीचे वाले हाथ में चक्र रहता है। बाएं और ऊपर वाले हाथ मेकमल का पुष्प एवं नीचे वाले हाथ में शंख रहता है। नवमी के दिन इनकी पूजा-उपासना कर कन्या पूजन करना चाहिए जिससे देवी सबसे अधिक प्रसन्न होती हैं। इनकी पूजा कर हलवा, चना, पूरी, खीर आदि का भोग लगाएं।
जो जातक नवमी के दिन मां सिद्धिदात्री की पूजा अर्चना करते हैं उनके जीवन से केतु का दोष हट जाता है।

मार्कण्डेय पुराण के अनुसार आठ सिद्धियां इस प्रकार हैं –
1 अणिमा, 2 महिमा, 3 गरिमा, 4 लघिमा,
5 प्राप्ति, 6 प्राकाम्य, 7 ईशित्व और 8 वशित्व

ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड में यह संख्या अठारह बताई गई है। इनके नाम इस प्रकार हैं –
1. अणिमा 2. लघिमा 3. प्राप्ति 4. प्राकाम्य 5. महिमा 6. ईशित्व,वाशित्व 7. सर्वकामावसायिता 8. सर्वज्ञत्व 9. दूरश्रवण
10. परकायप्रवेशन 11. वाक्‌सिद्धि 12. कल्पवृक्षत्व 13. सृष्टि 14. संहारकरणसामर्थ्य 15. अमरत्व 16. सर्वन्यायकत्व 17. भावना 18. सिद्धि
माँ सिद्धिदात्री की कथा

पुराणों के अनुसार भगवान शिव ने माँ सिद्धिदात्री की पूजा करके सभी प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त किया था। उनका आधा शरीर स्त्री का हो गया था। इसीलिए उन्हें अर्ध नारेश्वेर के नाम भी जाना जाता हे। एक समय पे जब सृष्टि में अंधकार छा गया था। तब एक दिव्य शक्ति ने जन्म लिया, जो महाशक्ति के आलावा कोई नहीं थी। देवी शक्ति ने ब्रह्मा, विष्णु, और महादेव की त्रिमूर्ति को जन्म दिया और तीनो को दुनिया के लिए अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनी भूमिकाओं को समझने की सलाह दी। उनके कहे अनुसार त्रिदेव एक महासागर के किनारे बैठ गए और कई वर्षो तक तपस्या की तब माँ देवी ने सिद्धिदात्री के रूप में उन्हें दर्शन दिए और तीनो को अपनी शक्तिओ के रूप में पत्निया दी, ताकि वो लोग उनकी मदद से सृष्टि रचना का कारोभार कर सके। और धीरे धीरे सृष्टि में सब कुछ निर्माण हुआ। इस तरह माँ सिद्धिदात्री की कृपा से सृष्टि की रचना, पालन, संहार का कार्य संचालित हुआ।
।। पूजन मंत्र ।।
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यामाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।

 

 
 

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